मजबूरी

प्रतियोगिता “शब्दों की अमृतवाणी”
सीरीज 1, फाइनल राउंड
टॉपिक ‘मजबूरी’
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तपती धूप में, बूढ़ी काया,
झुकी पीठ पर जीवन की छाया।

जिस उम्र में खुद का बोझ संभाला ना जाए,
उसी उम्र में वो औरों का बोझ उठाए।

जिन बच्चों का पालन-पोषण वो करता जाय,
मुस्कान आती चेहरे पे उसके,
अगर वो बच्चे भी उसके कुछ काम आय।

आसपास के लोग न हाथ थामे,
न कोई रास्ता दिखाए।
व्यस्त जीवन में मजबूर वो भी लोग,
जो रोज़गार की तलाश में चलते जाय।

जो शारीरिक तौर पर *माज़ूर है,
दुनिया कहती कि वह मजबूर है।

मगर कुछ कर दिखाने का उनमें जो *फितूर है,
कठिन मेहनत और परिश्रम से आगे बढ़ते वो,
जो अक्सर सुविधाओं से भी दूर है।

जिनके है हाथ मज़बूत वो बहाने मार रहे हैं,
जिनके पास कुछ भी नहीं वह सब कुछ कर दिखा रहे है।

मगर हर हाथ नकारा नहीं,
कोई मदद का हाथ बढ़ा भी देता है,
किसी के चेहरे पर हल्की मुस्कान लौटा देता है।

“दूसरों के चेहरे पर मुस्कान देकर,
ओझल हो जाओ कुछ कीमती दान देकर।”
यह पाठ सिखा भी देता है।

एक घर बनाने के लिए बरसो लग जाते है ,
कई ईंटें और कई जीवन लग जाते हैं।

फिर भी तारीफ होती है मकान-मालिक की,
उन हाथों को भुला दिया जाता है जो मकान बनाते हैं।

वह जिन्हें “मज़दूर” कहते हैं,
वह पेट के खातिर इतने मजबूर रहते हैं।

छिले हुए हाथों से बनाते हैं *आशियाना किसी का,
खुद अपने परिवार और घर से दूर रहते हैं।

शायद इसलिए कहते है “पैसे से दुनिया चलती है”,
रोटी, कपड़ा, मकान….
जीने का हर एक इंतजाम,
हर चीज इसी से मिलती है।

दुनिया चलती है पैसों की राह में,
और जीवन खो जाता है कमाई की चाह में।

पर अमीरी ने दुनिया देखी है,
गरीबी ने बचपन खोया है।

सुना है कि जीने के लिए अन चाहिए,
और शिक्षा के लिए धन चाहिए।

जिन्हें मिले जीवन की सारी *आसाइशे,
वो खुद को तराशने में जीवन गुजार देते हैं।

इतनी अकेली जान वह परछाइयों में अपनापन ढूंढ कर,
खुद को तलाशने में जीवन गुजार देते हैं।

मगर अब सुन ए दुनिया के *मुसाफ़िर,
किस्मत की *डगर पर खुद को चलाता जा।

ये मजबूरी ही है तेरी हिम्मत,
बदलना है तुझे अपनी किस्मत,
उम्मीदों की *लौ तू जलाता जा।

©Sadia

*माज़ूर: अपाहिज, or incapable
*फितूर: किसी चीज़ के प्रति तीव्र और प्रबल इच्छा
*आशियाना: घर या बसेरा
*आसाइशे: सुख, आराम, चैन, सुविधा
*मुसाफ़िर: यात्री

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