मैं ही परिवर्तन
सन्नाटे में जो पहली पुकार गूँजती है,
वो मेरी ही आवाज़ होती है।
भीड़ में जो अकेला खड़ा दिखता है,
वो मैं ही हूँ, जो रास्ता बदलता है।
लोग कहते हैं – वक़्त बदलता है,
पर सच्चाई ये है कि बदलता तो इंसान है।
और जब इंसान बदलता है,
तभी वक़्त की परिभाषा बदलती है।
मैंने आँधियों से सीखा है
कि टूटना भी एक शक्ति है।
मैंने चुप्पियों से समझा है
कि खामोशी भी सबसे बड़ा उत्तर है।
मैं गिरा हज़ार बार,
पर हर बार उठने वाला मैं ही था।
मैंने आँसूओं को हथियार बनाया,
और हँसी को अपनी जीत।
अब मैं दर्पण में खुद को देखता हूँ
तो पहचानता हूँ –
हाँ, वही चेहरा है जो कल भी था,
पर आँखों की आग कहती है—
आज मैं वही नहीं हूँ।
मैं ही परिवर्तन हूँ,
जिसने अपने ज़ख़्मों को ताक़त बनाया,
मैं ही परिवर्तन हूँ,
जिसने हार को मंज़िल की सीढ़ी बनाया।
दुनिया चाहे लाख कहे—
कुछ नहीं बदलता,
मैं मुस्कुरा कर जवाब देता हूँ—
बदलाव मैं हूँ।
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)