सांस लेती जिंदा लाश
कभी धड़कते थे अरमान उसके सीने में,
अब बस खामोशी का बसेरा है उसके चेहरे में।
सपनों की वो मिठास, उम्मीदों की वो रोशनी,
सब कहीं खो गई, पीछे छूट गई बस एक वीरानी।
हर सुबह उठती है, पर आंखों में उजाले नहीं,
हर शाम ढलती है, पर मुस्कान की चमक नहीं।
वो खामोश चलती है गलियों में,
जैसे कोई कहानी अधूरी रह गई हो।
सांस लेती है जिंदा लाश…
बिना वजह, बिना उद्देश्य,
बस वक्त के थपेड़ों से थककर
चलती जा रही है।
लोग उसे देखते हैं, पर नजरें चुरा लेते हैं,
बातें करते हैं, पर दिल से नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
क्या कभी कोई पूछेगा—
उसके भीतर क्या टूटा था,
किस खामोशी ने उसे इस हाल में ला दिया?
यह जिंदा लाश भी एक इंसान थी कभी,
जिसने मोहब्बत की, हँसी बिखेरी,
पर अब उसकी बस एक सांस बची है…
और एक तन्हा साया।
क्योंकि दुनिया इतनी बेरहम है,
कि कभी जीते हुए भी इंसान…
मायूसी के समंदर में डूब जाता है।
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)