*विषय* – *प्रकृति हमसे नाराज़ है*
चीख चीख कर कह रही
दे रही आवाज़ है
प्रकृति हमसे नाराज़ है
हरियाली सारी नष्ट हुई
न बचे पेड़ न डाल है
समान साज सजावट का
बनी पशु की खाल है
शाखें वृक्षों से टूट रहीं
नदियां बांधों से छूट रहीं
देखो प्रकोप इस धरती का
हर दिन अब सांसे टूट रहीं
देखो ये कितना रोती है
पीड़ा इसे कितनी होती है
जो है दशा प्रकृति की
संसार ये सारा दोषी है
मनुष्य ने जो इससे पाया
इसका दिया पिया खाया
कभी दूप में छांव बनी है ये
कभी बनी है ये साया
सुनो समझ लो ए इंसान
अब इस पर तुम दे दो ध्यान
ये संसार का है वरदान
कर लो इसका भी सम्मान
फिर इसे हरा भरा कर दो
रंग सारे इसमें भर दो
तभी बचेगी इसकी जान
होगी न धरती वीरान
न अगर सुधारी भूल किसी ने
रूप इसका विकराल है
अभी इसको मिटा रहे सारे
बन सकती कल ये काल है
ये बात ग़ौर करने की है
ये तो बस शुरुआत है
दृश्य अभी छोटे छोटे है
कर सकते कल बर्बाद हैं
जैसा है रूप प्रकृति का
विनाश का ये आगाज़ है
संसार समझ ले ये सारा
मौका अभी और आज है
चीख चीख कर कह रही
दे रही आवाज़ है
प्रकृति हमसे नाराज़ है
Prashant Tiwari