कविता प्रतियोगिता – हुंकार
विषय – आग की तरह जलते सपने
तहज़ीब का दुप्पटा ओढ़ना अजनबी सिखाते
खुद की नज़र बेटियों के प्रति काबू न कर पाते
आग की तरह जलते सपने राख हो जाते हैं
हम बेटियों के ख़्वाब, ख़्वाब ही रह जाते हैं…
बेटियों को उड़ान भला कौन भरने देना चाहता
हमारा अपना बन के हमारे पंख को हैं काटता
इसीलिए हम सपनो की उड़ान नहीं भर पाते हैं
हम बेटियों के ख़्वाब, ख़्वाब ही रह जाते हैं…
आधुनिक हुआ ये ज़माना पर सोच कहा बदलती
हम बेटियों की ये दुनियां आज भी बोझ समझती
हमारे चूल्हे में रोटी के संग सपने भी जल जाते हैं
हम बेटियों के ख़्वाब, ख़्वाब ही रह जाते हैं……
भेदभाव, उत्पीड़न, जिम्मेदारी का गहना पहनती
हम बेटियां ही समाज के आगे हमेशा भेंट चढ़ती
दिल में दबे हुए सपने आंखों में आंसु रह जाते हैं
हम बेटियों के ख़्वाब, ख़्वाब ही रह जाते हैं……
समाज को हम हर रूप में हमेशा सहज स्वीकारते
बदले में हम बेटियों को सब मिल के हैं धूतकारते
हम बेटियां सब सहते सहते श्मशान पहुंच जाते हैं
हम बेटियों के ख़्वाब, ख़्वाब ही रह जाते हैं……
आग सी ज्वाला हमारे भी मन के भीतर हैं धधकती
इन निर्दई लोगों के सामने सपनों की लाश हैं जलती
हमारी ज़िंदगी के सपने बस काश में अटक जाते हैं
हम बेटियों के ख़्वाब, ख़्वाब ही रह जाते हैं………
✍️ ✍️ शिवोम उपाध्याय
🌟 🌟 अल्फ़ाज़ ए सुकून 🌟 🌟