प्रतियोगिता – सीरीज़ 1, राउंड 1
विषय: मर्यादित कौन
भाव: सामाजिक मर्यादा, सच्चाई और अन्याय पर प्रहार
रावण को क्यों जलाते हैं, आज तक समझ आया नहीं,बुराई तो इंसान में है, रावण को फिर जलाने से हर बार रोका क्यों नहीं…
हर साल पुतला जलता है, पर भीतर का रावण मुस्काता है,
झूठ, घमंड, लालच में डूबा मनुष्य खुद को ही राम बतलाता है।
हर साल वो जलता है, ताली बजती है,
पर भीतर का रावण हँसता है, डटती है।
धोखा, घृणा, लालच, दंभ,
इनके पुतले कब जलाएंगे हम?
जब झूठ, लूट, स्वार्थ में जीना बंद करेंगे,
तब असली दशहरा मनाएंगे हम।
जब अपने भीतर के रावण को हराएंगे हम,तभी सच्चे राम कहलाएंगे हम।
सब कुछ मर्यादा में रहता है,
फिर इंसान मर्यादा में क्यों भूल गया?
सच की राहें वीरान हैं अब,
हर ज़मीर मानो खुद से ही झूल गया।
सच्चाई के रास्ते में,
क्यों काँटों से दामन छिन गया?
जो सीधे चला, वो लहूलुहान हुआ,
झूठ बिछा जैसे फूल गया।
हँसता है वो, जो सच्चाई को रौंदे,
और जो सही खड़ा हो, वही दोखे खाए।
झूठ के कंधे पर चढ़ कर आज,
हर झूठा इंसाफ की कुर्सी पाए।
क्यों वक्त लगता है इंसाफ में,
क्यों झूठ का पलड़ा भारी हुआ?
क्यों सच की गवाही दम तोड़ती है,
और झूठ सरेआम बाज़ारी हुआ?
मर्यादा क्या सिर्फ़ बातों में रह गई?
या अब वो किताबों में बंद कोई कहानी हुई?
राम की तरह जीना कठिन सही,
पर रावण बनने की आज़ादी आम हुई।
©® Malwinder kaur
ग्रुप D – अल्फ़ाज़-ए-सुकून