प्रतियोगिता : हम चार
प्रतियोगिता टॉपिक : ज़िन्दगी इत्तेफ़ाक़ है
राउंड : दूसरा
रचयिता : सुनील मौर्या
ज़िन्दगी इत्तेफ़ाक़ है
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कभी मुस्कान में छिपा दर्द, कभी आँसू में सुकून,
कभी रास्ता हुआ तय, कभी मंज़िल हुई गुमसुम।
कभी कोई अजनबी अपना बन गया,
तो कभी अपना ही पराया लगने लगा।
कभी वक़्त ने सिखाया सब्र का मतलब,
तो कभी हालात ने छीना चैन बेमतलब।
कभी हम चले बिना जाने मंज़िल क्या है,
फिर वहीं पहुँच गए जहाँ ठहरना मना है।
कभी ठोकरों ने गिराया, कभी हौसले ने उठाया,
हर हार में भी कहीं जीत का सबक छिपा पाया।
कभी धूप ने जलाया, कभी छाँव ने थामा,
हर मौसम ने ही हमें कुछ नया सिखाया।
कभी किसी की आँखों में खुद को पाया,
कभी आईने में भी अजनबी नज़र आया।
कभी रिश्तों ने बाँधा, कभी ख़ुद से मिलाया,
हर मोड़ में ही कुछ खोया, तो कुछ पाया।
कभी ख़्वाबों ने अनजान रास्ते दिखाए,
तो कभी हक़ीक़त ने आँखें खुलवाईं।
कभी हँसी में दर्द छुपा, कभी दर्द में हँसी आई,
हर लम्हा जैसे कह गया अपनी ही एक कहानी।
कभी रूह ने शोर में सुकून खोजा,
तो कभी ख़ामोशी में आवाज़ पाई।
कभी वक़्त ने छू लिया, तो कभी छूट गया,
हर साँस में इत्तेफ़ाक़ का रंग बिखर गया।
ज़िन्दगी यूँ ही नहीं चलती,
कभी किस्मत धकेलती, कभी दुआ संभालती।
और जब पीछे मुड़कर देखते हैं,
तो हर हादसा एक इत्तेफ़ाक़ लगता है —
पर शायद, वही ज़िन्दगी की असली किताब होता है।
— सुनील मौर्या
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