जब बाग में खून बरसा था…जलियांवाला
चैत की दोपहर थी, उम्मीदें जवाँ थीं,
धरती की छाती पर आज़ादी की दुआ थी।
पर नफ़रत की नज़र ने जो बारूद बोया,
जलियांवाले बाग़ में, वही मौत का साया था।
ना तलवार थी, ना कोई बगावत,
बस हाथों में तिरंगे की मासूम सी चाहत।
माँओं की गोद, बच्चों की मुस्कानें,
सब रौंद दीं गईं जनरल डायर की गोलियों के बहाव में।
दीवारें बोल उठीं “यहाँ खून गिरा था,”
किसी ने चुपचाप दम तोड़ा, किसी ने नारा मारा था।
गोलियों की गूँज नहीं, आज भी वहाँ सिसकियाँ और चीखें हैं,
और वो दिन , हमारे लहू में अब भी जिंदा है।
उसी बाग़ से, जहाँ गुलाब लहू में नहाए थे,
एक नौजवान आँखों में इंकलाब लाए आए थे।
नाम था उसका भगत सिंह, सीने में आग थी,
वो हर कतरा पूछता था — “क्या अब भी चुप्पी बाकी है?”
वो ज़मीन जो कभी मासूमों के लहू से भीगी थी,
उस मिट्टी को चूमा, बोतल में भर ली — जैसे कोई वसीयत थी।
कहा ये धरा अब सो नहीं सकती,
अब इसे आज़ादी की उत्सव चाहिए, जंजीरों की बंदिश नहीं।
वो चल पड़ा बम नहीं, विचार लेकर,
हर दीवार पर लिख दिया — हमे आजादी का इंकलाब चाहिए
और जब वक़्त आया फाँसी का,
तो जलियांवाला की वही मिट्टी सीने से लगाकर मुस्कुराते हुए माँ की गोद में समा गया ,
तब भी कोई आँसू नहीं टपका,
बस एक लहर थी जो सड़कों से उठी, और आज भी बह रही है।
वो लहू, वो मिट्टी, वो पुकार आज भी जिन्दा है,
हर दिल में कहीं न कहीं भगत सिंह अब भी जिंदा है।
वो बाग़ आज भी हमें आवाज़ लगाता है,
हर पत्ता वहाँ इंकलाब दोहराता है।
आज उसे याद कर रगों में आग सी बहती है,
और दिल कह उठता है — मैं भी भगत सिंह बन सकता हूँ ।।
जय हिंद, जय भारत
जलियांवाले बाग़ के अमर बलिदानियों को शत् शत् नमन।
देश के लिए बलिदान देने वाले हर जवान को शत् शत् नमन।
(Third round)
— ऋषभ तिवारी (लब्ज़ के दो शब्द)