प्रवासी श्रमिक वो चेहरे धूप में झुलसे, मगर पहचान कोई ना, वतन के वास्ते जीते हैं, मगर सम्मान कोई ना।
बसे परदेस में लेकिन, दिलों में हिन्द की धड़कन,
नमन उनको भी करना था, हुआ ऐलान कोई ना।
जो ईंटों में लहू भरते, पसीने से नमक देते,
वो मज़दूरों के हिस्से में, मिला वरदान कोई ना।
न त्योहारों की रौनक है, न अपनों की वो बाँहें हैं,
सिर्फ़ तस्वीरें गले लगती, नहीं भगवान कोई ना।
बचपन बिन पिता के बीते, माँ की आँखें सूनी हैं,
वो मासूमों की हँसी छीनें, ऐसा इंसान कोई ना।
वो तन्हा रात में रोते, छुपा आँसू में अपना देश,
मगर संसद में उनके दर्द पर, हुई चर्चा कोई ना।
कभी सरहद पे जो लड़े, तो “वीर” कहलाए सबके बीच,
ये भी तो अपने फ़र्ज़ में, हैं सच्चे जवान, कोई ना?
वो घर बनाते गैरों के, खुद रहते तंग गलियों में,
जहाँ कोई न अपना हो, वहीं मेज़बान कोई ना।
वो हर दिन हारते खुद से, मगर उम्मीद ज़िंदा है,
न सम्मान चाहिए उनको, न ईनाम, कोई ना।
नियाज़ पूछता है अब, वतन से वो सवाल यही,
“कभी हमको भी देखेगा, तेरा मेहरबान कोई ना?”
वो चेहरे धूप में झुलसे, मगर पहचान कोई ना,
वतन के वास्ते जीते हैं, मगर सम्मान कोई ना।
कभी खाड़ी की रेतों में, कभी यूरोप के फर्शों पर,
पसीना बहता भारत का, मगर उद्घोष कोई ना।
न दीपावली की ख़ुशबू है, न ईद की वो बाँहों में,
वो सब त्यौहार तन्हा हैं, कोई संग साथ कोई ना।
बिटिया की शादी की ख़ुशी, वीडियो कॉल में सिमटी,
बेटे की पहली मुस्कान पर, उनका आह्लाद कोई ना।
जो भेजे लाख़ों रक़में घर, बुज़ुर्गों की दवा बनकर,
उनके नाम पे गाँवों में, बना एक स्मारक कोई ना।
वो छोड़ आए माँ की ममता, पिया संगिनी की रातें,
किया सब कुछ वतन खातिर, फिर भी इज़्ज़त कोई ना।
जब डॉलर में इक आय बढ़े, अर्थव्यवस्था उछलती है,
मगर संसद में उनके नाम पर, कोई शोर कोई ना।
न रहने को है सुविधा बस, इक तम्बू, इक चादर है,
वो बनाते मॉल और होटल, पर खुद का ठौर कोई ना।
कभी गिरते हैं सीढ़ी से, तो इलाज़ तक नहीं मिलता,
वो मरते हैं अकेले में, न मातम, शोर कोई ना।
नियाज़ अब लफ़्ज़ों में भर कर, उनका दर्द कहता है,
“वो भी सपूत हैं धरती के, क्यों उनका गौरव कोई ना?