प्रतियोगिता ५ : ज़िंदगी एक चौपाल
लगती थी चौपाल जब गाँव के बाहर,
जहाँ बँटते थे दुख-सुख, होते थे विचार।
ज़िंदगी भी कुछ वैसी ही मालूम होती है,
मेरे-तेरे दिल की, बस एक सी बात होती है।
कोई यहाँ बाँटता है ख़ुशी के पल,
तो कोई रहता है दुखों में हर पल।
कोई “अपना” बनकर अजनबी सा लगता है,
और कोई अजनबी, दिल के क़रीब आ बसता है।
जैसे चौपाल ठहरती नहीं, बस चलती रहती है,
वैसे ही ये ज़िंदगी भी मुसाफ़िरों सी बहती है।
कभी कोई बात दिल को छू जाती है,
तो कोई मुस्कान दिल पर छा जाती है।
ये चौपाल है — हर पल नई कहानी कहती है,
कुछ दूसरो की सुननी है, कुछ अपनी भी सुनानी है।
कलम तो हमारी थी, पर अल्फ़ाज़ हालातों ने चुने,
कभी दिल ने बहलाया, तो कभी दिमाग़ ने सपने बुने।
यहाँ कोई भी टिकता नहीं सदा के लिए,
कोई सुनाने आता है, कोई सुनने के लिए।
जिसने समझा इस आवा-जाही का सार,
उसने पा लिया जीवन का असली उपहार।
ज़िंदगी एक चौपाल है…
जहाँ हर मोड़ पर कोई नई रूह मिलती है,
जो सुनकर, कहकर… हमें कुछ सिखा जाती है।
ये हमारे प्रकृति है की किसको कितना अपना पाती है ।
किरण बाला, नई दिल्ली